सवाल था कि आदमी मेहनत से आगे बढ़ता है या भाग्य से?


एक पान वाला था। जब भी पान खाने जाओ ऐसा लगता कि वह हमारा ही रास्ता देख रहा हो। हर विषय पर बात करने में उसे बड़ा मज़ा आता। कई बार उसे कहा की भाई देर हो जाती है जल्दी पान लगा दिया करो पर उसकी बात ख़त्म ही नही होती।
एक दिन अचानक कर्म और भाग्य पर बात शुरू हो गई।
तक़दीर और तदबीर की बात सुन मैनें सोचा कि चलो आज उसकी फ़िलासफ़ी देख ही लेते हैं। मैंने एक सवाल उछाल दिया।
मेरा सवाल था कि आदमी मेहनत से आगे बढ़ता है या भाग्य से?
और उसके जवाब से मेरे दिमाग़ के सारे जाले ही साफ़ हो गए।
कहने लगा,आपका किसी बैंक में लाकर तो होगा?
उसकी चाभियाँ ही इस सवाल का जवाब है। हर लाकर की दो चाभियाँ होती हैं।
एक आप के पास होती है और एक मैनेजर के पास।
आप के पास जो चाभी है वह है परिश्रम और मैनेजर के पास वाली भाग्य।
जब तक दोनों नहीं लगतीं ताला नही खुल सकता।
आप कर्मयोगी पुरुष हैं ओर मैनेजर भगवान।
अाप को अपनी चाभी भी लगाते रहना चाहिये।पता नहीं ऊपर वाला कब अपनी चाभी लगा दे।  कहीं ऐसा न हो की भगवान अपनी भाग्यवाली चाभी लगा रहा हो और हम परिश्रम वाली चाभी न लगा पायें और ताला खुलने से रह जाये ।

मैं वाट्सएप करूँ भगवान को... और उसमें 'ब्लू टीक' हो जाए...!!!

एक बार सत्यनारायण कथा की आरती मेरे सामने आने पर मैंने छाँट कर जेब में से कटा फटा पाँच रू का नोट कोई देखे नहीं , ऐसा डाला । वहाँ अत्यधिक ठसाठस भीड़ थी । मेरे कंधे पर ठीक पीछे वाले सज्जन ने थपकी मार कर मेरी ओर ५०० रू का नोट बढ़ाया ।मैंने उनसे नोट ले कर आरती में डाल दिया । अपने मात्र ५ रू डालने पर थोड़ी लज्जा भी आई ।
















बाहर निकलते समय मैंने उन सज्जन को श्रद्धा पूर्वक नमस्कार किया तब उन्होंने बताया कि ५ रू का नोट निकालते समय ५०० का नोट मेरी ही जेब से गिरा था, जो वे मुझे दे रहे थे ।






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काश..
मेरी भी कुछ मुरादें युँ पूरी हो जाए..
"मैं वाट्सएप करूँ भगवान को...
और उसमें 'ब्लू टीक' हो जाए...!!!

" अपेक्षा और उपेक्षा " ये दो ऐसी घातक भावनाएं हैं, जो मजबूत से मजबूत सम्बंधों की जडें हिलाकर रख देती हैं!!!!!

" अपेक्षा और उपेक्षा "
ये दो ऐसी घातक भावनाएं हैं,
जो मजबूत से मजबूत सम्बंधों की
जडें हिलाकर रख देती हैं!!!!!   


           

अपेक्षा और उपेक्षा में
एक बारीक फर्क है
एक देती दर्द है
दूसरी सुखद क्षण है
यदि तुम करते हो
खुद से यह दोनों
दूजें समझे तुमको बौना
कर्म करो सही दिशा में
दशायें तो क्षणभंगुर हैं
बदलते मौसम का ज्वर हैं
जिसके फेर में जीते दुर्बल हैं
जो है ही नहीं सांसों में
उस सन्निपात का नाम
कायरों ने रखा डर है
इसे मार भगाओ मन से
भीतर घात से बाहर आओ
पर कुतरे आसमानों ने
शुरूआतें ऐसे ही होती यारों ।।                      
  

संसार को जब भी हम अपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं तो संग पैदा होता है। जैसे ही उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं तो संग की भावना समाप्त हो जाती है। आसक्ति हटती है, अटैचमेंट टूटता है। इसलिए मैं कहता हूँ कि कभी भी किसी की तरफ अपेक्षा की दृष्टि से मत देखना, बल्कि उपेक्षा की दृष्टि से देखना।

कोई भी चीज जो मोह रही हो, उससे अटैच मत होईये। रास्ते में चलते हुए आपको अगर बाजार में कोई चीज दिखे, बिकने को तैयार खड़ी गाड़ी दिखे, ज्वैलरी शाप में सजे हुये जेवर दिखें, या किसी दुकान में सुन्दर वस्त्रों पर आपने नजर डाली। अगर वहाँ आपकी उपेक्षा वाली दृष्टि है तो आपका ध्यान सिर्फ देखने में हुआ और आगे चल पड़े। आपका मन उन चीज़ों से जुड़ा नहीं। लेकिन, यदि अपेक्षा की दृष्टि से देखा और सोचा कि अच्छा! इतनी अच्छी चीज यहाँ मिलती है! मंहगी होगी! हो सकता है ठीक दाम से भी मिल जाये! आपने सोचा, सत्संग में जायेंगे, उसके बाद वापिस आते हुए एक बार तो जरूर दुकान में बात करके जायेंगे। जब सत्संग में आकर के बैठे तो ध्यान उसी साड़ी पर, जेवर पर, वस्त्र पर या कार पर होगा।

अपेक्षा से देखा न आपने, तो कहीं भी जाओ! कहीं भी बैठो! ध्यान बार-बार उसी पर रहेगा। जरा एक बार देख तो लूँ। इतनी अच्छी गाड़ी, इतना अच्छा माडल अगर मेरे पास हो तो कितना अच्छा हो। अब यहाँ उस वस्तु से आपका संग जुड़ गया। रास्ते में चलते हुए अगर आप कहीं कूड़ा कचरा देखते हैं तो उसे आप कभी अपेक्षा की दृष्टि से नहीं देखते, वरन् उपेक्षा की दृष्टि से देखते हैं। इसलिए कभी वह गन्दगी आपके मन में याद नहीं रहती। याद वही चीज रहेगी, जिससे आपको आसक्ति हो गई। वह भी चीज़ या बात याद रहती है, जिसके बारे में आपके भीतर घृणा जाग गई हो।

ये दोनों एक ही सिक्के के दो पहलू हैं। जिससे घृणा है, जिससे बैर है वो भी हर समय याद आयेगा और जिसके प्रति आपकी बड़ी आसक्ति है, वह चीज़ भी आपको हर समय याद आएगी। उठते-बैठते, चलते-फिरते हर समय आप उसे याद करेंगे। यदि आप अपनी दृष्टि को सम्यक् बना लेंगे और "ना काहू से दोस्ती न काहू से बैर" की नीति को अंगीकार कर लेंगे तो फिर कोई याद आने वाला नहीं। ऐसा करके बहुत सारी मानसिक चिंताओ एवं विकृतियों से आप मुक्त हो जाएँगे। इसलिए, आप ऐसा ही करना।

किसी धर्मका अपमान करने की इजाजत मेरा धर्म नहीं देता.

झुका लेता हूं सर अपना,
सभी धर्मस्थलों के सामने,
क्योंकि किसी धर्मका अपमान करने की इजाजत मेरा धर्म नहीं देता..
मज़हब तो ये दो हथेलियाँ ही बताती हैं,
जुड़ें तो "पूजा" खुलें तो "दुआ"कहलाती हैं..




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एक घर में पड़ी किताब - गीता और कुरान आपस में कभी नहीं लड़ते,
और जो उनके लिए लड़ते हैं वो कभी उन दोनों को नहीं पढ़ते.



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 धर्म के उन ठेकेदारो से तो वो दुकानदार ठीक हैं ;
जो गीता और कुरान साथ मे सजा कर रखते है..!!

सत्य ने ज्यारे पीरसवा मां आवे त्यारे....

प्रभू का पत्र- दूसरा नाम...आस्था और विश्वास ही तो है।

प्रभू का पत्र
मेरे प्रिय...
सुबह तुम जैसे ही सो कर उठे, मैं तुम्हारे बिस्तर के पास ही खड़ा था। मुझे लगा कि तुम मुझसे कुछ बात
करोगे। तुम कल या पिछले हफ्ते हुई किसी बात या घटना के लिये मुझे धन्यवाद कहोगे। लेकिन तुम फटाफट चाय पी कर तैयार होने चले गए और मेरी तरफ देखा भी नहीं!!!
फिर मैंने सोचा कि तुम नहा के मुझे याद करोगे। पर तुम इस उधेड़बुन में लग गये कि तुम्हे आज कौन से कपड़े पहनने है!!!
फिर जब तुम जल्दी से नाश्ता कर रहे थे और अपने ऑफिस के कागज़ इक्कठे करने के लिये घर में इधर से उधर दौड़ रहे थे...तो भी मुझे लगा कि शायद अब तुम्हे मेरा ध्यान आयेगा,लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
फिर जब तुमने आफिस जाने के लिए ट्रेन पकड़ी तो मैं समझा कि इस खाली समय का उपयोग तुम मुझसे बातचीत करने में करोगे पर तुमने थोड़ी देर पेपर पढ़ा और फिर खेलने लग गए अपने मोबाइल में और मैं खड़ा का खड़ा ही रह गया।
मैं तुम्हें बताना चाहता था कि दिन का कुछ हिस्सा मेरे साथ बिता कर तो देखो,तुम्हारे काम और भी अच्छी तरह से होने लगेंगे, लेकिन तुमनें मुझसे बात
ही नहीं की...
एक मौका ऐसा भी आया जब तुम
बिलकुल खाली थे और कुर्सी पर पूरे 15 मिनट यूं ही बैठे रहे,लेकिन तब भी तुम्हें मेरा ध्यान नहीं आया।
दोपहर के खाने के वक्त जब तुम इधर-
उधर देख रहे थे,तो भी मुझे लगा कि खाना खाने से पहले तुम एक पल के लिये मेरे बारे में सोचोंगे,लेकिन ऐसा नहीं हुआ।
दिन का अब भी काफी समय बचा था। मुझे लगा कि शायद इस बचे समय में हमारी बात हो जायेगी,लेकिन घर पहुँचने के बाद तुम रोज़मर्रा के कामों में व्यस्त हो गये। जब वे काम निबट गये तो तुमनें टीवी खोल लिया और घंटो टीवी देखते रहे। देर रात थककर तुम बिस्तर पर आ लेटे।
तुमनें अपनी पत्नी, बच्चों को शुभरात्रि कहा और चुपचाप चादर ओढ़कर सो गये।
मेरा बड़ा मन था कि मैं भी तुम्हारी दिनचर्या का हिस्सा बनूं...
तुम्हारे साथ कुछ वक्त बिताऊँ...
तुम्हारी कुछ सुनूं...
तुम्हे कुछ सुनाऊँ।
कुछ मार्गदर्शन करूँ तुम्हारा ताकि तुम्हें समझ आए कि तुम किसलिए इस धरती पर आए हो और किन कामों में उलझ गए हो, लेकिन तुम्हें समय
ही नहीं मिला और मैं मन मार कर ही रह गया।
मैं तुमसे बहुत प्रेम करता हूँ।
हर रोज़ मैं इस बात का इंतज़ार करता हूँ कि तुम मेरा ध्यान करोगे और
अपनी छोटी छोटी खुशियों के लिए मेरा धन्यवाद करोगे।
पर तुम तब ही आते हो जब तुम्हें कुछ चाहिए होता है। तुम जल्दी में आते हो और अपनी माँगें मेरे आगे रख के चले जाते हो।और मजे की बात तो ये है
कि इस प्रक्रिया में तुम मेरी तरफ देखते
भी नहीं। ध्यान तुम्हारा उस समय भी लोगों की तरफ ही लगा रहता है,और मैं इंतज़ार करता ही रह जाता हूँ।
खैर कोई बात नहीं...हो सकता है कल तुम्हें मेरी याद आ जाये!!!
ऐसा मुझे विश्वास है और मुझे तुम
में आस्था है। आखिरकार मेरा दूसरा नाम...आस्था और विश्वास ही तो है।
.
.
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तुम्हारा ईश्वर...
दोस्तों की ख़ुशी के लिए तो कई मैसेज भेजते हैं । देखते हैं परमात्मा के धन्यवाद का ये मैसेज कितने लोग शेयर करते हैं ।
किसी पर कोई दबाव नही है ।

कड़वी गोलियाँ चबाई नही निगली जाती हैं।


"कड़वी गोलियाँ चबाई नही
निगली जाती हैं।"
उसी प्रकार जीवन में
अपमान , असफलता , धोखे जैसी कड़वी बातों को सीधे गटक जाऐं...
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उन्हें चबाते रहेंगे...
यानि याद करते रहेंगे
तो जीवन कड़वा ही होगा।


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असफलता कोई अकस्मात घटी हुयी दुर्घटना नहीं है । कोई भी व्यक्ति रातों रात असफल नहीं होता, बल्कि असफलता हर दिन दोहराये जाने वाली त्रुटियों का सामुहिक मिश्रण है।

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ईश्वर "टूटी" हुई चीज़ों का इस्तेमाल कितनी ख़ूबसूरती से करता है ..,,
जैसे ....
बादल टूटने पर पानी की फुहार आती है ......
मिट्टी टूटने पर खेत का रुप लेती है....
फल के टूटने पर बीज अंकुरित हो जाता है .....
और बीज टूटने पर एक नये पौधे की संरचना होती है ....
इसीलिये जब आप ख़ुद को टूटा हुआ महसूस करे तो समझ लिजिये ईश्वर आपका इस्तेमाल किसी बड़ी उपयोगिता के लिये करना चाहता है ।
इसीलिए सदैव प्रसन्न रहें और हँसते रहें ।


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       कर्मों की आवाज़
      शब्दों से भी ऊँची होती है I
यह आवश्यक नहीं कि
       हर लड़ाई जीती ही जाए I
आवश्यक तो यह है कि
   हर हार से कुछ सीखा जाए II