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जिंदगी मे बस इतना कमाओ की ... जम़ीन पर बैठो तो..., लोग उसे आपका बड़प्पन कहें..., औकात नहीं....

जिंदगी मे बस इतना कमाओ की ...
जम़ीन पर बैठो तो...,
लोग उसे आपका बड़प्पन कहें...,
औकात नहीं....



कोई इतना भी अमीर नहीं होता कि वो अपना बीता हुआ कल ख़रीद सके,
कोई इतना भी ग़रीब नहीं होता कि वो अपना आने वाला कल न बदल सके!


“मैं भी एक सम्पन्न घराने का था, पर जुए और शराब की लत ने मुझे सड़क पर लाकर खड़ा कर दिया” एक व्यक्ति अपनी करुण कथा दीनबन्धु एंड्रयूज से कह रहा था -”माता-पिता के प्यार और भाई-बहन के स्नेह से वंचित होना पड़ा। तभी से दर-दर की खाक छान रहा हूँ और अब स्थिति ऐसी है कि खाने के भी लाले पड़ रहे हैं। इसी मजबूरी ने चोरी करना भी सिखा दिया और कई वर्षों की जेल की सजा भी काट चुका हूँ। मेहनत-मजदूरी करते बन नहीं पड़ता। स्वास्थ्य भी साथ नहीं देता और फिर ऊपर से कोढ़ में खाज की तरह टी.बी. की शिकायत! जीवन से ऊब चुका हूँ। आत्महत्या करने को जी चाहता है।” 

दीनबन्धु बड़ी धैर्य से उसकी कथा सुन रहे थे। सब कुछ सुनने के उपरान्त उनने प्रश्न किया-”क्या तुम्हें पता नहीं बुरी आदतों का परिणाम भी बुरा होता है?” युवक ने सकारात्मक जवाब में सिर हिला दिया।

“फिर तुमने यह गलती क्यों की?” दीनबन्धु का सवाल था।

कुछ तो मित्रों के बहकावे में आकर और कुछ बड़प्पन का अहंकार जताने हेतु।”

दीनबन्धु उसे समझाने की दृष्टि से कहने लगे-”व्यक्ति यहीं भ्रमित हो जाता है। यह समझता है कि वह पड़ोसियों पर, समाज पर ऐसे कृत्यों द्वारा अपनी छाप डाल लेगा। लोग उसे बड़ा प्रगतिशील, सभ्य, और आधुनिक मानने लगेंगे, पर होता ठीक इसके विपरीत है। उन्हीं के बिरादरी वाले ऐसे लोगों को बड़ा और आधुनिक मान सकते हैं, पर यदि कोई सचमुच ही विचारशील व्यक्ति हो, तो इस आधुनिक सभ्यता, और चिन्तन-चेतना की प्रवृत्ति द्वारा स्वयं को बड़ा बनाने और कहलाने को कभी उचित नहीं ठहरायेगा। व्यक्ति बड़ा और महान बाह्याडम्बर से पहनावे-ओढ़ावे से नहीं, वरन् कर्त्तृत्व से बनता है, चिन्तन-चरित्र से बनता है और यदि यह सब ओछे और बचकाने हों, तो भले ही आडम्बर का ढकोसला वह ओढ़े रहे, पर वास्तविकता जग-जाहिर हो ही जाती है और लोग उसके तथाकथित ‘बड़प्पन’ पर उँगली उठाने लगते हैं। याद रखो महानता सदा सादगी में होती है, बड़प्पन में नहीं।”

युवक का समाधान हो चुका था। वह बड़ी आर्तदृष्टि से दीनबन्धु की ओर देख रहा था, जैसे उसे अपना अपराध-बोध हो गया हो और वह उसे स्वीकार रहा हो। दीनबन्धु ने उसे कई महीनों तक अपने साथ रखा एवं उसका उपचार कराया। अनेक महीनों के पश्चात् जब उसका स्वास्थ्य और रोग लगभग सही हो गया, तो उनने युवक से कहा-”अब तुम जा सकते हो, पर फिर से इन गंदी लतों को पास फटकने मत देना और कहीं मेहनत-मजदूरी कर ईमानदारी की जिन्दगी जीना।”

युवक उनकी नसीहत की स्वीकारोक्ति में नतमस्तक हो प्रणाम कर चल पड़ा। अनेक वर्षों बाद एक सुबह दीनबन्धु की झोंपड़ी के सामने आकर एक कार रुकी। उससे सीधे-साधे लिबास में एक प्रौढ़ सा दीखने वाला व्यक्ति उतरा। दरवाजा खटखटाया। कुछ क्षण पश्चात् दीनबन्धु बाहर आये। व्यक्ति ने भाव विभोर होकर कहा-”पहचाना।” दीनबन्धु असमंजस में पड़ गये तभी अपना परिचय न देते हुए उसने कहा “ मैं वही हूँ, जिसने आपसे अमुक महीनों तक सेवा करवायी थी।”

परिचय पाकर दीनबन्धु ने मुस्कराते हुए कहा-”अरे! तुम। अन्दर आओ।” युवक ने संक्षेप में अपनी प्रगति-कथा सुनायी कि किस तरह अखबार बेचते हुए आज वह एक फैक्ट्री का मालिक बन गया है। वह अपने साथ ढेर सारे उपहार और एक प्रस्ताव लेकर आया था कि वह इस झोंपड़ी से एक अच्छे मकान में चले चलें, जिसे उसने हाल ही में खरीदा था। प्रस्ताव अस्वीकारते हुए उन्होंने कहा-इस पैसे को गरीबों की सवा में लगा देना। रही उपहार की बात तो उनने एक गुलदस्ता भर रख कर शेष को अभावग्रस्तों में बाँट देने को कहा। चलते-चलते दीनबन्धु ने एक बात और कही कि “जीवन भर दूसरों की सेवा करना, पिछड़ों को उठाना। यही मेरे प्रति तुम्हारा सच्चा कृतज्ञता-ज्ञापन होगा”। निहाल वह व्यक्ति एक और मंत्र सीखकर पुनः सेवा क्षेत्र की ओर चल पड़ा।